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विरोधाभास

 

“जब्बार को आतंकवादी कहकर पुलिस पकड़ कर ले गई,” मैंने जैसे ही घर में कदम रखा, कोमल ने कहा।

“सच में?” मैंने हैरानी से पूछा।

“हां, बिल्कुल सच। उनके घर की नौकरानी ने बताया।”

“क्या बताया?”

“कोलकत्ता पुलिस ने गिरफ्तार किया। बताया जा रहा है कि बांग्लादेश के कुछ लोग किसी आतंकी साजिश में पकड़े गए। उनके पास से जब्बार का नाम, पता और फोन नंबर मिले। फिर बेंगलुरु पुलिस की मदद से कॉलकत्ता पुलिस ने जब्बार को गिरफ्तार करके वहाँ ले गई। इसी वजह से जब्बार के माता-पिता भी कोलकत्ता जा रहे हैं।”

मुझे समझ नहीं आ रहा था कि क्या कहूं।

जब्बार के पिता, खलील, मेरे बचपन के दोस्त हैं। हम साथ में पढ़े हैं। हमें एक ही कंपनी में नौकरी भी मिली थी। उसने सायरा से शादी करने में मेरी मदद ली थी। मेरी शादी में जब कोमल को रस्म के अनुसार ‘बुट्टा’ (टोकरा) में लाना था और एक आदमी कम पड़ गया, तब खलील ने ‘मैं हूं न’ कहकर आगे आकर कोमल का मामा बन गया। तब से हमारे दोनों परिवारों के बीच नजदीकियाँ बढ़ीं।

जब्बार बेंगलुरु में एक सॉफ्टवेयर कंपनी में काम करता है। वह बहुत अच्छा और समझदार लड़का है।

“मुसलमान न होता तो हमारी बेटी के लिए बात चलाते,” कोमल कई बार कह चुकी थी, जब भी हमारी बेटी के रिश्ते टूटते थे।

ऐसे लड़के का आतंकवादियों से कोई संबंध?

“कहीं न कहीं कोई गलती जरूर हुई है।”

मैंने जैसे ही घर में कदम रखा था, वैसे ही वापस मुड़ गया।

“कहाँ जा रहे हो?” उसने पूछा।

“खलील के पास।”

“मैं भी चलूंगी,” कहकर कोमल ने बिना कोई और मौका दिए तुरंत दरवाजे को ताला लगाकर साथ निकल पड़ी।

हम खलील के घर तक पहुँच ही नहीं पाएँ। वो गली पूरी तरह लोगों और पुलिस से भरी हुई थी।

राजनीतिक नेता अपने समर्थकों के साथ वहाँ इस तरह मौजूद थे कि उस क्षेत्र में कदम रखना भी मुमकिन नहीं था। पुलिस ने हमें रोक दिया।

“यहाँ रहने वालों को छोड़कर किसी को भी जाने की इजाज़त नहीं है,” उन्होंने बिना झिझक कह दिया। हमें वापस जाने के लिए कह दिया। हम थोड़ी देर वहीं खड़े रहे। हर पल भीड़ बढ़ती जा रही थी। तनाव बढ़ता जा रहा था। नारेबाज़ी की तीव्रता बढ़ती जा रही थी। स्थिति तनावपूर्ण होती देख, हमारे पास और कोई चारा नहीं था — हम घर लौट आए।

घर लौटने के बाद हम दोनों काफी देर तक कुछ नहीं बोले। आख़िरकार, लाइट बंद करने से पहले कोमल ने पूछा, “क्या जब्बार का सच में आतंकवादियों से कोई संबंध हो सकता है?”

“पता नहीं,” मैंने कहा।

“मुझे विश्वास है कि नहीं है। पुलिस से ज़रूर कोई ग़लती हुई है। हमने ऐसे कई मामले देखे हैं — किसी को गिरफ्तार कर लेते हैं, जेल में डाल देते हैं, और फिर सालों बाद निर्दोष घोषित करके छोड़ देते हैं।”

“लेकिन तब तक उसकी ज़िंदगी तबाह हो चुकी होती है। उसके माता-पिता को कितनी पीड़ा, कितनी बदनामी झेलनी पड़ती है,” कोमल ने दुख के साथ कहा।

“खलील के समर्थन में सांसद और विधायक आए हैं। और फिर, अगर कोई मुसलमान किसी मुसीबत में होता है तो सिर्फ मुस्लिम ही नहीं, बल्कि कई ग़ैर-मुस्लिम भी उसकी मदद के लिए सामने आते हैं। वहाँ हमारे जैसी पुरानी दुश्मनियाँ, जलन, ओछी चतुराइयाँ, और जाति के आधार पर दिए गए फ़ैसले नहीं होते,” मैंने कहा।

“लेकिन आजकल तो पढ़े-लिखे लोग भी आतंकवाद की ओर आकर्षित हो रहे हैं,” कोमल ने कहा।

मैंने कुछ नहीं कहा। लेकिन खलील के घर की ओर जाने वाले रास्ते में जो भीड़ थी, उसमें जो गुस्सा साफ़ दिख रहा था — वो अब भी मुझे डरा रहा था। उनके नारे अब भी मेरे सीने में गूंज रहे हैं।

तब से मैं हर रोज़ अख़बार में खबरें देखता रहा।

पुलिस जब रूटीन वाहन चेकिंग कर रही थी, एक वाहन चालक पुलिस को देखकर भागने की कोशिश की। पुलिस ने उसका पीछा कर उसे पकड़ लिया। उसके पास टाइमर बम मिला। जांच में पता चला कि वह बांग्लादेश से अवैध रूप से भारत आया था। पुलिस ने उससे पूछताछ कर जानकारी हासिल की। पता चला कि वह एक बड़े गिरोह का छोटा सदस्य है, और यह एक बहुत बड़ा नेटवर्क है जो जाले की तरह फैला हुआ है। उससे मिले सुरागों के आधार पर पुलिस ने दो-तीन जगहों पर छापे मारे। बाकी सदस्य, उसके पकड़े जाने की खबर मिलते ही सतर्क होकर अपने ठिकानों को खाली कर गए और सारे सबूत मिटाकर भाग निकले। कुछ इधर-उधर पकड़े गए। उन्हीं से मिली जानकारी के आधार पर जब्बार को गिरफ्तार किया गया।

खबरें आने लगीं कि यह नेटवर्क पूरे देश में फैला हुआ है और पुलिस अलग-अलग जगहों पर छापेमारी कर रही है। उस दिन के बाद खलील मुझसे नहीं मिला। न ही उसने फोन किया। मैंने फोन किया तो उसने नहीं उठाया। सायरा भी नहीं। एक पल में हम अजनबी हो गए।

खलील के बारे में जानकारी मुझे हमारे साथ काम करने वाले लोगों से ही मिल रही थी। पता चला कि खलील और सायरा कोलकाता में किसी परिचित या रिश्तेदार के घर ठहरे हुए हैं। स्वास्थ्य कारणों का हवाला देकर डॉक्टर के प्रमाण पत्र लगाकर खलील ने बिना तीन महीने की नोटिस अवधि के स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के लिए आवेदन किया, जिसे अधिकारियों ने तत्काल स्वीकृत कर दिया। इस तरह खलील की वॉलंटरी रिटायरमेंट हो गई। मुझे बहुत दुख हुआ। इतनी लंबी दोस्ती को खलील कैसे भूल गया? एक शब्द भी नहीं कहा। कुछ दिन बाद मुझे एहसास हुआ कि सिर्फ खलील ही नहीं, सायरा का फोन भी अब बंद हो गया था। इससे हमारे और उनके बीच का रिश्ता पूरी तरह से टूट गया। अजीब बात यह थी कि खलील की वजह से जिनसे मेरी पहचान हुई थी — उसके दोस्त, रिश्तेदार — उन्होंने भी मुझसे मिलना-जुलना बंद कर दिया। जब मैं पहल करता, तो वे ऐसे अनजान बन जाते जैसे मुझे जानते ही न हों।

जब्बार को भूलने नहीं देता था टीवी, अखबार, सोशल मीडिया — कहीं न कहीं उस घटना से जुड़ी खबर आती ही रहती थी। लेकिन उन्हीं खबरों के साथ यह भी छपता रहता कि गिरफ्तारी अन्यायपूर्ण है, निर्दोष लोगों को प्रताड़ित किया जा रहा है।

अचानक एक दिन पुलिस हमारे घर भी आ पहुँची।

“आप जब्बार को जानते हैं?” उन्होंने पूछा। मैंने सच-सच बता दिया।

पुलिस हमारे जवाबों से संतुष्ट दिखी। उन्होंने कोमल से भी पूछताछ की और हमारे दोनों के उत्तरों का मिलान किया।

“जरूरत पड़ी तो पुलिस स्टेशन बुलाया जाएगा। कोर्ट में भी पेश होना पड़ सकता है,” उन्होंने कहा। जब वे जा रहे थे, तो मुझसे रहा नहीं गया और मैंने पूछ ही लिया:

“क्या जब्बार सच में आतंकवादियों से जुड़ा था? यक़ीन नहीं हो रहा है। मेरी आँखों के सामने बड़ा हुआ लड़का है।”

पुलिसवाला मुस्कराया।

“जो अपराध करता है, लेकिन उसका अपराध साबित नहीं होता — वह निर्दोष माना जाता है। और यह तो एक ऐसा केस है जिसमें अभी कुछ कहना जल्दबाज़ी होगी। हम ऊपर से मिले आदेशों के अनुसार ही काम करते हैं। जितना आपको पता है, उतना ही हमें भी।” वह मुस्कराता हुआ चला गया।

“सुनिए ज़रा इधर आइए,” कोमल की आवाज़ में चिंता महसूस कर मैंने जो कर रहा था, उसे छोड़कर दौड़ते हुए वहाँ गया।

मैं कमरे में दाख़िल हो ही रहा था कि वह चिल्ला उठी — “अभी-अभी टीवी में खलील दिखा। कह रहा था कि जब्बार की गिरफ्तारी अन्यायपूर्ण है, इस देश में अल्पसंख्यकों को कोई सुरक्षा नहीं है, और यह सरकार की अल्पसंख्यकों के खिलाफ एक साजिश है।”

अब टीवी पर कोई दूसरी खबर चल रही थी।

मैंने पूछा, “क्या खलील ने सच में ऐसा कहा?”

“थोड़ी देर में फिर से दोहराएंगे, आप खुद सुनिए,” कोमल ने जवाब दिया।

मैंने इंतज़ार कर दोबारा वह खबर सुनी।

सिर्फ यह नहीं कि अल्पसंख्यकों को सुरक्षा नहीं है — बल्कि वह यह भी कह रहा था; “हम शांति से हाथ जोड़कर दुआ करते हैं, और वे त्रिशूल लेकर हम पर हमला कर देते हैं,” — इस तरह के भड़काऊ, नफरत फैलाने वाले बयान दे रहा था। उसकी बातें ऐसे थीं मानो हिंदू लगातार मुस्लिमों पर हमले कर रहे हों।

मेरा दिल टूट गया। खलील और मैं बहुत करीबी थे। हमारे बीच कभी यह भेदभाव नहीं रहा कि वह अल्पसंख्यक है और मैं बहुसंख्यक। भारत में अल्पसंख्यक असुरक्षित हैं — यह बात खलील कहे, यह मेरे लिए पचाना मुश्किल था।

वह हमेशा कहता था — “भारत जितना शांतिपूर्ण और सुखद देश कहीं नहीं है। देश के विभाजन के बाद मुस्लिमों की देशभक्ति पर सवाल उठने लगे। आतंकवादियों ने भ्रम फैलाया। राजनीति ने शक और फूट पैदा की। वरना कोई समस्या ही नहीं थी।” ऐसा सोचने वाला इंसान अब इस तरह की बात कर रहा है — तो मैंने मान लिया कि यह उसके बेटे की गिरफ्तारी से उपजी पीड़ा का असर रहा होगा।

इसी बीच, जब्बार और अन्य लोगों की गिरफ्तारी के खिलाफ देशव्यापी आंदोलन शुरू हो गया। दिल्ली में खलील और उसकी पत्नी ने धरना शुरू किया। उन्हें समर्थन देने वालों में न सिर्फ मुस्लिम समुदाय के लोग थे, बल्कि आंदोलनजीवी, प्रगतिशील बुद्धिजीवी, लोकतंत्र के संरक्षक, आंदोलनकारी कवि, लेखक, लिबरल्स, सेक्युलरिस्ट और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्षधर भी शामिल हो गए।

हर ओर से आंदोलन से जुड़ी कहानियाँ और कविताएँ लिखी जाने लगीं। कुछ लोग मुझसे भी कहने लगे कि मैं भी जब्बार के बारे में कुछ लिखूं। मुझे पढ़ने की आदत है, लिखने की नहीं। यही कहने पर किसी ने कहा — “तो फिर आप हमारे यूट्यूब चैनल पर आकर खलील और जब्बार से अपने संबंधों के बारे में बताइए।”

कुछ ने कहा, “हमारे स्टूडियो आइए, बात कीजिए।”

इसी घटना के बाद मुझे समझ में आया कि खलील ने मुझसे दूरी क्यों बनाई थी। इसीलिए मैं हर किसी के सामने मौन रह गया।

कोर्ट में बहसें शुरू हो चुकी थीं।

एक दिन जब जब्बार और अन्य आरोपियों को कोर्ट ले जाया जा रहा था, कुछ लोगों ने उस वाहन पर हमला कर उन्हें छुड़ाने की कोशिश की। हालांकि कोशिश नाकाम रही, पर उस झड़प में अल्पसंख्यक समुदाय के दो लोग मारे गए। उनकी शवयात्रा बड़े पैमाने पर हुई। देश के कई हिस्सों में उपद्रवियों ने हिंसा फैलाई। पत्थरबाज़ी हुई, गाड़ियों को आग लगा दी गई। पुलिस की कार्रवाई में दो-तीन और लोग मारे गए। पूरा देश एक युद्धभूमि जैसा बन गया। हर जगह प्रदर्शन और दंगे शुरू हो गए। राजनीति भी इसमें कूद पड़ी। इससे माहौल और भी गरम हो गया।

उसी दौरान शुक्रवार आया। शुक्रवार की नमाज़ के बाद जब लोग मस्जिदों से झुंडों में बाहर निकले, तो उन्होंने जो भी सामने आया, उस पर — व्यक्ति हो या वस्तु — अंधाधुंध हमला करना शुरू कर दिया।

ऑफिस में अपने काम में लगा हुआ था कि तभी एक ऑफिस असिस्टेंट मेरे पास एक नोटिस लेकर आई।

“क्या बात है?” कहते हुए मैंने नोटिस देखा। नोटिस का सारांश यह था कि शहर में गिरती हुई कानून-व्यवस्था की स्थिति को देखते हुए ऑफिस को उस दिन जल्दी बंद किया जा रहा है और सभी को तुरंत ऑफिस छोड़कर, जितना जल्दी हो सके, सुरक्षित अपने घर पहुंचने का निर्देश दिया गया था। मैंने दस्तखत किए, कंप्यूटर में जो काम चल रहा था उसे सेव करके शटडाउन किया और कोमल को फोन किया।

“तुम्हारा ऑफिस छुट गया क्या?”

“छुट गया। तुम बताओ? मैं लगभग घर पहुँच ही गई हूँ।” कोमल ने बताया।

“मैं भी निकल रहा हूँ,” मैंने कहा।

“यह सब कैसा हो रहा है? पुलिस जाँच कर रही है, कोर्ट में बहस चल रही है। फिर भी अगर पुलिस की गाड़ी पर हमला करने वाले मारे जाते हैं, तो उनके लिए इतना बवाल क्यों?” कॉफी पीते हुए कोमल ने पूछा।

घर पहुँचना मेरे लिए काफी मुश्किल भरा रहा। हर मुख्य चौराहे पर पुलिस तैनात थी। हर कदम पर पहचान पत्र दिखाकर आगे बढ़ना पड़ा। कहीं-कहीं सड़कों पर हुए बवाल के निशान—बिखरे हुए पत्थर, जली हुई और टूटी हुई गाड़ियाँ दिखाई दे रही थीं। उन सबको पार करते हुए जैसे-तैसे घर पहुँचा।

मैंने कुछ नहीं कहा।

“मस्जिदों से, घरों की छतों से पत्थर क्यों फेंकते हैं? नमाज़ पढ़ने के बाद दंगे क्यों करते हैं? पुलिस ने शक के आधार पर गिरफ़्तारी की है। कोर्ट में केस चल रहा है। फिर सड़क पर बसें जलाना, वाहनों को तोड़ना, दूसरे धर्मों के लोगों पर हमला करना, यह सब किसलिए? यह विरोध प्रदर्शन का तरीका है क्या? विरोध करना है तो संवैधानिक तरीके से करना चाहिए, ये दंगे क्यों?” थोड़ी देर बाद उसने फिर पूछा। मेरे पास फिर भी कोई जवाब नहीं था।

“आखिर किसी इंसान को इस तरह कैसे मार सकते हैं? जिनसे कोई लेना-देना नहीं, उन पर इतना गुस्सा, इतनी नफरत कैसे हो सकती है? क्या उनके भीतर इंसानियत बिल्कुल नहीं बची?” उसने दुःखी होकर कहा। फिर भी, मेरा जवाब सिर्फ चुप्पी ही था।

शहर भर में कर्फ्यू लगा दिया गया था। टीवी ऑन करने पर पता चला कि एक राज्य में अल्पसंख्यकों की भीड़ ने बड़ी संख्या में हिंदुओं के घरों पर हमला किया। भारी तबाही मचाई। घरों को जला दिया, महिलाओं का अपमान किया, बच्चों और बुजुर्गों तक को नहीं छोड़ा। पत्नियों के सामने पतियों को, माताओं के सामने बच्चों को मार डाला। दुकानों को लूटा और आग लगा दी गई। लोग जान बचाकर, जो हाथ लगा उसी में, घर-बार छोड़कर भागते दिखाए जा रहे थे। अपने ही देश में शरणार्थियों की तरह बन गए उन बदनसीबों की पीड़ा दिखाई जा रही थी। इन हमलों का निशाना खासतौर पर हिंदू और गैर-मुस्लिम समुदाय ही था—यह देखकर मन और ज्यादा दुखी हो गया।

यह सब क्या है? इतनी हिंसा क्यों? शक के आधार पर आतंकवाद से जुड़े होने पर गिरफ़्तारी हुई। जाँच चल रही है। उसका मतलब यह तो नहीं कि आम नागरिकों को मार दिया जाए, सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुँचाया जाए?

रात भर हम दोनों खबरें देखते रहे और मन बेहद भारी हो गया। इतने में बिजली चली गई। नींद के लिए लेटने ही वाले थे कि फोन आया—बेटी का। बेटी अपनी माँ से बात कर रही थी, मैं भी सुन रहा था। किसी दूर जगह से चीखें, चिल्लाहटें सुनाई दे रही थीं। कान लगाकर सुना। वो आवाजें हमारे कॉलोनी से ही आ रही थीं। कोमल बात करती जा रही थी।

मैं तेजी से सीढ़ियाँ चढ़कर बालकनी में गया। वहाँ से दिख रहा दृश्य सिर्फ मेरे दिमाग को सुन्न ही नहीं कर रहा था, बल्कि पूरा शरीर थरथरा रहा था। अख़बारों में पढ़ना, फिल्मों में देखना एक बात है, लेकिन ऐसा दृश्य प्रत्यक्ष रूप में देखूंगा—ऐसा कभी सोचा भी नहीं था। जो दूर-दूर होता था, वह अब हमारे घर के सामने हो रहा था। कभी सपने में भी नहीं सोचा था।

कॉलोनी के दोनों छोर से भीड़ हाथों में तरह-तरह के हथियार लिए घरों पर टूट पड़ी थी। दरवाज़े तोड़े जा रहे थे। घरों में घुसकर लोगों को बाहर खींचकर काटा जा रहा था। घरों में घुसकर सामान लूटा जा रहा था। कुछ लड़कियों को सामान समेत उठाकर ले जा रहे थे।

मेरा शरीर काँपने लगा। दिमाग सुन्न पड़ गया।

कुछ घरों में आग लगा दी गई थी। धधकती ज्वालाओं के बीच जो हो रहा था, वो और भी भयावह लग रहा था। उस भीड़ में कुछ लोगों को मैंने पहचान लिया। खलील के दोस्त, पड़ोस के लोग!
मुझे उनसे जान-पहचान थी। इतने में उनमें से एक ने हमारे घर की तरफ इशारा किया।

मेरा दिल धक से रह गया। शरीर को चेतना लौट आई। नीचे जाने वाला था।

“बेटी इंडिया आने वाली है। कह रही थी आपसे बात करूंगी…” ऊपर आते हुए कुछ कहने जा रही कोमल मेरे चेहरे को देखकर रुक गई। सड़क की ओर देखा।

डर से बोली, “क्या है ये?” लेकिन आवाज़ बस फुसफुसाहट की तरह निकली।

“उसे छोड़ो! पहले बेटी को मना करो… इंडिया मत आने को कहो। वहीं रहने को कहो।” मैंने जल्दी से कहा।

कोमल बेटी से फोन पर बात करती जा रही थी, और मैं घर के पिछले दरवाज़े से बाहर निकलने का रास्ता सोच रहा था। तभी मुझे खलील की बात याद आई— “इस देश में अल्पसंख्यकों को सुरक्षा नहीं है।”

अगर मैं उस समय ज़िंदा बाहर निकल पाया, तो हँसा था या रोया था—यह मैं आपको बाद में बताऊँगा। क्योंकि, तभी हमारे घर के दरवाज़े पर ज़ोर की दस्तक होने लगी है।

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